हलवे जैसा बजट (व्यंग्य)

बजटजी आने वाले हैं और उम्मीदों ने नाचना शुरू कर दिया है। उच्च वर्ग को कुछ सोचने या करने की ज़रूरत नहीं उसका बढ़िया ख्याल तो सरकारजी खुद ही रखती है, रखना पडता है इसलिए रखेगी। मध्यम वर्ग ने बैंक से क़र्ज़ लेकर मकान खरीद रखा है जिसे घर बनाने में पत्नी भी रात दिन जुटी हुई है। किश्तों पर ली हुई कार गली में खडी है। जब भी उसे चलाने का मौक़ा मिलता है कई बार लगता है इसकी ज़रूरत नहीं थी। पड़ोसियों की देखा देखी में ले तो ली लेकिन इसकी और बीमा की मासिक किश्त ही काफी है हर महीने गौर से देखने के लिए। चपाती और सब्जी की जगह कार प्रयोग नहीं कर सकते। कमबख्त महंगाई आम लोगों के लिए कम नहीं होती। आलू प्याज़ भी कितने महंगे हो जाते हैं। मध्यम वर्ग की ज़िंदगी तो आटा, सब्जी, तेल, पानी और सपनों में फंसी हुई है। सरकार चलाने वाला उच्च वर्ग तो दिवालिया घोषित होकर भी संतुष्ट हो जाता है। ऐसों के लिए हर बजट में प्रावधान भी रहते हैं। मध्यम वर्ग की क्षेत्रीय, पारम्परिक धार्मिक और सामाजिक हकीकतें ही उसे खासा परेशान करती हैं। वह बात दीगर है कि यह वही मध्यम वर्ग है जो सब्जी खरीदते समय दाम कम करवाता है और ब्रांडेड पहनते हुए सम्मान से क्रेडिट कार्ड से भुगतान करता है।इसे भी पढ़ें: शादियों के जलवे (व्यंग्य)उम्मीद कहती है शायद इस बार बजट में आयकर में छूट मिल जाए। मकान के क़र्ज़ पर ब्याज कम लगे। आम इंसान बार बार भूलना चाहता है कि हर महीने उसने कितना ब्याज देना है। लेकिन बजट के दिन आते हैं तो उसे लगता है कि वह बीच में पिस रहा है। उस पर आयकर कम होना चाहिए क्यूंकि इसी देश में शासकों की आय पर टैक्स सरकार देती है। मध्यम वर्ग तो जीएसटी भी दे रहा है और आयकर भी। उसके बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और बीमा सब महंगा है। पेंशन भोगी भी आयकर झेल रहे हैं।  बजट का मदारी सांस्कृतिक हलवा खाकर आएगा, डुगडुगी बजाएगा, राजनीतिक घोषणाएं कर झूठी मुस्कुराहटें पकड़ा कर चला जाएगा। बजट की योजनाओं में अंकों की जादूगरी समझते समझते, अगला वार्षिक हलवा भी बांट दिया जाएगा। एक बार मिली ज़िंदगी में सपने कहां खत्म होते हैं। सपने हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए बाज़ार रात दिन जवां है और जवान रहने के लिए बजट की सुन्दरी का नृत्य देखने को बेताब है।  बजट हलवे जैसा होता है जिसमें पहले कभी पता नहीं चलता कि बादाम, नारियल और किशमिश वगैरा कितनी हैं। यह तो हलवा खाते हुए पता चलता है कि मुंह की किस्मत में क्या आया।    - संतोष उत्सुक

हलवे जैसा बजट (व्यंग्य)
बजटजी आने वाले हैं और उम्मीदों ने नाचना शुरू कर दिया है। उच्च वर्ग को कुछ सोचने या करने की ज़रूरत नहीं उसका बढ़िया ख्याल तो सरकारजी खुद ही रखती है, रखना पडता है इसलिए रखेगी। मध्यम वर्ग ने बैंक से क़र्ज़ लेकर मकान खरीद रखा है जिसे घर बनाने में पत्नी भी रात दिन जुटी हुई है। किश्तों पर ली हुई कार गली में खडी है। जब भी उसे चलाने का मौक़ा मिलता है कई बार लगता है इसकी ज़रूरत नहीं थी। पड़ोसियों की देखा देखी में ले तो ली लेकिन इसकी और बीमा की मासिक किश्त ही काफी है हर महीने गौर से देखने के लिए। 

चपाती और सब्जी की जगह कार प्रयोग नहीं कर सकते। कमबख्त महंगाई आम लोगों के लिए कम नहीं होती। आलू प्याज़ भी कितने महंगे हो जाते हैं। मध्यम वर्ग की ज़िंदगी तो आटा, सब्जी, तेल, पानी और सपनों में फंसी हुई है। सरकार चलाने वाला उच्च वर्ग तो दिवालिया घोषित होकर भी संतुष्ट हो जाता है। ऐसों के लिए हर बजट में प्रावधान भी रहते हैं। मध्यम वर्ग की क्षेत्रीय, पारम्परिक धार्मिक और सामाजिक हकीकतें ही उसे खासा परेशान करती हैं। वह बात दीगर है कि यह वही मध्यम वर्ग है जो सब्जी खरीदते समय दाम कम करवाता है और ब्रांडेड पहनते हुए सम्मान से क्रेडिट कार्ड से भुगतान करता है।

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उम्मीद कहती है शायद इस बार बजट में आयकर में छूट मिल जाए। मकान के क़र्ज़ पर ब्याज कम लगे। आम इंसान बार बार भूलना चाहता है कि हर महीने उसने कितना ब्याज देना है। लेकिन बजट के दिन आते हैं तो उसे लगता है कि वह बीच में पिस रहा है। उस पर आयकर कम होना चाहिए क्यूंकि इसी देश में शासकों की आय पर टैक्स सरकार देती है। मध्यम वर्ग तो जीएसटी भी दे रहा है और आयकर भी। उसके बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और बीमा सब महंगा है। पेंशन भोगी भी आयकर झेल रहे हैं। 
 
बजट का मदारी सांस्कृतिक हलवा खाकर आएगा, डुगडुगी बजाएगा, राजनीतिक घोषणाएं कर झूठी मुस्कुराहटें पकड़ा कर चला जाएगा। बजट की योजनाओं में अंकों की जादूगरी समझते समझते, अगला वार्षिक हलवा भी बांट दिया जाएगा। एक बार मिली ज़िंदगी में सपने कहां खत्म होते हैं। सपने हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए बाज़ार रात दिन जवां है और जवान रहने के लिए बजट की सुन्दरी का नृत्य देखने को बेताब है। 
 
बजट हलवे जैसा होता है जिसमें पहले कभी पता नहीं चलता कि बादाम, नारियल और किशमिश वगैरा कितनी हैं। यह तो हलवा खाते हुए पता चलता है कि मुंह की किस्मत में क्या आया।    

- संतोष उत्सुक