विश्वगुरु नहीं विनम्र शिष्य (व्यंग्य)

दुनिया का क्या है, देश में भी कोई माने या न माने, विश्वगुरु तो हम हैं। पिछले दिनों करवाई नीट जैसी परीक्षा को साफ़ सुथरे तरीके से संचालित कर दोबारा साबित किया कि हम श्रेष्ठ विश्वगुरु हैं। गड़बड़ी करने में हमारे यहां एक से एक गुरु हैं। ब्यूरोक्रेसी के हीरो आईएएस द्वारा कमाल का फर्जीवाड़ा करना क्या विश्वगुरु होने का स्वर्णिम गुण नहीं। पर्दाफाश या राज़फाश करना एक ही बात है और हमारे कुछ लोग इसमें भी विश्व स्तरीय महारत रखते हैं। सीधे सीधे कहें तो विश्वगुरु ही हैं जी।  हमारे कमाऊ चेयरमैन या अध्यक्ष सिर्फ निजी कारणों से इस्तीफ़ा देते हैं। प्रशासनिक, राजनीतिक, धार्मिक या आर्थिक रूप से इस्तीफा देने का, अनुभवी, सधा हुआ, विवाद रहित, लोकतांत्रिक तरीका यही है।  उदघाटन से पहले कई पुलों का गिरने में, पक्का और बेमिसाल सहयोग करना भी विश्व गुरुओं का राष्ट्रीय प्रताप है। बिना पूछे आई बरसात के मौसम में ही सड़क की मरम्मत करवाना, बचे खुचे तालाबों की सफाई करवाना भी तो गुरु प्रतिभा है। विचाराधीन निर्दोष कैदी का दशकों तक जेल में रहने के बाद, कोर्ट के आदेश से बरी होना, सरकारी स्कूल में पांचवीं स्कूल के छात्र को कक्षा दो का सामान्य जोड़ घटाव नहीं आना, बच्चों का जान पहचान के किसी स्कूल में सिर्फ नाम लिखवाना और किसी बढ़िया कोचिंग संस्थान में कोचिंग लेते रहना भी तो अनुभवी गुरुओं का गठजोड़ होने का प्रमाण है।इसे भी पढ़ें: आजादी के लड्डू (व्यंग्य)जीडीपी का प्रतिशत बहुत कम शर्माते हुए बताता है कि सरकारी कर्मचारियों को आवास भाता, महंगाई भत्ता, एलटीसी, आकस्मिक छुट्टियां, चिकित्सा अवकाश, अर्जित अवकाश, प्रतिबंधित अवकाश और हर महीने वेतन भी मिलने के मुकाबले प्राइवेट क्षेत्र में जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद, सभी को कम पगार मिलना भी गुरुओं के गुरु होना है। कई सरकारी कर्मचारियों की पगार प्राइवेट कर्मचारियों की पगार से पांच गुणा ज़्यादा है। निजी क्षेत्र में उपस्थिति और प्रदर्शन फिर बेहतर है। इससे पता चलता है कि हम सामाजिक असमानता के साथ आर्थिक असमानता के भी यशस्वी विश्वगुरु हैं।  हमारे यहां एक हज़ार नागरिकों पर सोलह कर्मचारी हैं और छोटे से ब्राजील में एक हज़ार नागरिकों पर सत्तावन हैं। वाकई हम कमाल के विश्वगुरु हैं। हमें विश्वगुरु हुए तो सदियां हो गई हैं अब नए माहौल में एक सवाल सर उठा रहा है कि क्या हम गुरु घंटाल कहलाने लायक नहीं हैं। महागुरु कहेंगे तो कम रहेगा। यहां तो चेले भी उनके बनते हैं जो दूसरों का उल्लू बना कर रखें। गुरु भी उन्हें बनाते हैं जो बाद में ठग गुरु साबित हों। यही हमारी समृद्ध गुरु परम्परा है। हमारे यहां विनम्र शिष्य बनाने और होने की रिवायत नहीं, क्या कुछ मामलों में तो हमें शिष्य बनने की ज़रूरत है।- संतोष उत्सुक

विश्वगुरु नहीं विनम्र शिष्य (व्यंग्य)
दुनिया का क्या है, देश में भी कोई माने या न माने, विश्वगुरु तो हम हैं। पिछले दिनों करवाई नीट जैसी परीक्षा को साफ़ सुथरे तरीके से संचालित कर दोबारा साबित किया कि हम श्रेष्ठ विश्वगुरु हैं। गड़बड़ी करने में हमारे यहां एक से एक गुरु हैं। ब्यूरोक्रेसी के हीरो आईएएस द्वारा कमाल का फर्जीवाड़ा करना क्या विश्वगुरु होने का स्वर्णिम गुण नहीं। पर्दाफाश या राज़फाश करना एक ही बात है और हमारे कुछ लोग इसमें भी विश्व स्तरीय महारत रखते हैं। सीधे सीधे कहें तो विश्वगुरु ही हैं जी। 
 
हमारे कमाऊ चेयरमैन या अध्यक्ष सिर्फ निजी कारणों से इस्तीफ़ा देते हैं। प्रशासनिक, राजनीतिक, धार्मिक या आर्थिक रूप से इस्तीफा देने का, अनुभवी, सधा हुआ, विवाद रहित, लोकतांत्रिक तरीका यही है।  उदघाटन से पहले कई पुलों का गिरने में, पक्का और बेमिसाल सहयोग करना भी विश्व गुरुओं का राष्ट्रीय प्रताप है। बिना पूछे आई बरसात के मौसम में ही सड़क की मरम्मत करवाना, बचे खुचे तालाबों की सफाई करवाना भी तो गुरु प्रतिभा है। विचाराधीन निर्दोष कैदी का दशकों तक जेल में रहने के बाद, कोर्ट के आदेश से बरी होना, सरकारी स्कूल में पांचवीं स्कूल के छात्र को कक्षा दो का सामान्य जोड़ घटाव नहीं आना, बच्चों का जान पहचान के किसी स्कूल में सिर्फ नाम लिखवाना और किसी बढ़िया कोचिंग संस्थान में कोचिंग लेते रहना भी तो अनुभवी गुरुओं का गठजोड़ होने का प्रमाण है।

इसे भी पढ़ें: आजादी के लड्डू (व्यंग्य)

जीडीपी का प्रतिशत बहुत कम शर्माते हुए बताता है कि सरकारी कर्मचारियों को आवास भाता, महंगाई भत्ता, एलटीसी, आकस्मिक छुट्टियां, चिकित्सा अवकाश, अर्जित अवकाश, प्रतिबंधित अवकाश और हर महीने वेतन भी मिलने के मुकाबले प्राइवेट क्षेत्र में जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद, सभी को कम पगार मिलना भी गुरुओं के गुरु होना है। कई सरकारी कर्मचारियों की पगार प्राइवेट कर्मचारियों की पगार से पांच गुणा ज़्यादा है। निजी क्षेत्र में उपस्थिति और प्रदर्शन फिर बेहतर है। इससे पता चलता है कि हम सामाजिक असमानता के साथ आर्थिक असमानता के भी यशस्वी विश्वगुरु हैं। 
 
हमारे यहां एक हज़ार नागरिकों पर सोलह कर्मचारी हैं और छोटे से ब्राजील में एक हज़ार नागरिकों पर सत्तावन हैं। वाकई हम कमाल के विश्वगुरु हैं। हमें विश्वगुरु हुए तो सदियां हो गई हैं अब नए माहौल में एक सवाल सर उठा रहा है कि क्या हम गुरु घंटाल कहलाने लायक नहीं हैं। महागुरु कहेंगे तो कम रहेगा। यहां तो चेले भी उनके बनते हैं जो दूसरों का उल्लू बना कर रखें। गुरु भी उन्हें बनाते हैं जो बाद में ठग गुरु साबित हों। यही हमारी समृद्ध गुरु परम्परा है। हमारे यहां विनम्र शिष्य बनाने और होने की रिवायत नहीं, क्या कुछ मामलों में तो हमें शिष्य बनने की ज़रूरत है।

- संतोष उत्सुक