बारिश हो रिमझिम रिमझिम तो बढ़े भूजल का स्तर

श्रावण का महीना और रिमझिम रिमझिम बरसात आज बीते जमाने की बात हो गई है। सही मायने में देखा जाए तो पिछले दो-तीन दशक की पीढ़ी तो रिमझिम बरसात या यों कहे कि सावण की झड़ी को तो देखना दूर की बात जानती भी नहीं होगी। एक समय था जब श्रावण में बरसात की झड़ी लग जाती थी और कई कई बार तो तीन-तीन, चार-चार दिन तक भगवान भास्कर के दर्शन मात्र को तरश जाते थे। इससे होता क्या था झरी लगती थी तो पानी सीधे जमीन में जाता था, जमीन की प्यास बुझती थी और जब प्यास बुझने लगती तो भूजल का स्तर बढ़ने लगता था। आज हालात दूसरे हैं। तेज बरसात आती हैं और बरसात का पानी भूमि की प्यास बुझाने के स्थान पर बह कर चला जाता है। कहने को तो वर्षा का ओसत तो पूरा दिखाई दे जाता हैं, सामान्य वर्षा के आंकड़ें भी पूरे हो जाते हैं पर बरसात का अधिकांश पानी बह कर निकल जाता है या फिर बाढ़ या शहरों की खराब ड्रेनेज व्यवस्था के कारण एकत्रित हो जाता है और फिर मक्खी-मच्छरों का स्थल बनकर बीमारी का प्रमुख कारण बन जाता है। क्योंकि अब तो रिमझिम बरसात का स्थान तेज वर्षा लेती जा रही है, एक दिन में ही रेकार्ड बरसात के समाचार आते हैं और इस कारण पानी भूजल स्तर को बढ़ाने की जगह बह जाता है।दरअसल यह सब जलवायु परिवर्तन का कारण है तो दूसरी और अंधाधुंध पेड़ों की कटाई, वनों और गांवों को शहरों में तब्दील कर कंक्रिट का जंगल विकसित करने और इससे भी दो कदम आगे प्राकृतिक जल स्रोतों को नष्ट करना या उन्हें लगभग समाप्त कर कॉलोनियां विकसित कर देना रहा है। दरअसल हमारे वास्तुकारों ने शहरों को डिजाइन करते समय यह सोचा ही नहीं की पानी संग्रहण के लिए भी कोई जगहें विकसित हो। यह तो उनके दिमाग में ही नहीं रही। बाकी कसर शहरों में कच्ची जगह तो छोड़ने के प्रयास ही नहीं हुए यहां तक कि फुटपाथ तक पक्के कर दिए गए और सड़क किनारे लगे पेड़ों को भी चारों तरफ से पक्का कर दिया गया ताकि पानी भूमि में कहीं से जा ही नहीं सकें। अन्य कारणों के साथ यह भी एक बड़ा कारण है कि मौसम चक्र पूरी तरह से गड़बड़ाता जा रहा है। सर्दी में सर्दी नहीं, गर्मी में गर्मी नहीं और बरसात में बरसात के हालात नहीं दिखाई देने लगे हैं। हांलाकि आज मानसून के प्रेडिक्शन यानी की संभाव्यता तो लगभग सही सही बताई जाने लगी है पर प्रकृति ने जो अपना खेल दिखाया है वह अपने आप में गंभीर और चिंतनीय है। ऐसा नहीं है कि हालात जानते या समझते नहीं हो, और हालात पर चर्चा करने के लिए दुनिया के देशों के दिग्गज बैठते भी हैं और चर्चा भी करते हैं, कागजों में बड़ी बड़ी रिपोर्ट और रोडमैप भी बनते हैं पर परिणाम सामने हैं।इसे भी पढ़ें: Uttarakhand Rains: केदारनाथ में IAF और SDRF ने जारी रखा हुआ है बचाव अभियान, अब तक 133 लोगों को एयरलिफ्ट किया गयाएक पहलू यह भी है कि भूजल का अत्यधिक दोहन किया गया और यह आज भी बदस्तूर जारी है। कम पानी वाले फसल चक्र के बारें में समय पर सोचा ही नहीं गया। जमीन से पानी खिंचने के लिए पहले कुएं होते थे, उनसे उतना ही पानी निकलता था जितना रिचार्ज हो जाता था, पर कुओं का स्थान बोरिंग और बोर वेल ने ले लिया और धरती में समाये पानी को निचोड़ने में कोई कमी नहीं छोड़ी। ऐसा नहीं है कि समस्या की गंभीरता से अनविज्ञ रहे हो पर जो उपाय किये गये वह नाकाफी होने के साथ ही कारगर सिद्ध नहीं हुए। पिछले तीन-चार दशक से शहरों में वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम सरकार स्तर पर बनाने के साथ ही कोलोनाइजर्स को बनाने को कहा जाता रहा और आज भी कहा जा रहा है पर उसकी पोल इसी से पूरी हो जाती है कि कहने को तो वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम बना दिये, पैसे भी पूरे लग गए पर उनका स्ट्रक्चर जाने-अनजाने ऐसे बन गए कि यह तो वे ऊंचे बन गए, उन तक पानी पहुंचने की संभावनाएं न्यूनतम रह गई या फिर ऐसी जगह बना दिये गये जहां उनकी उपयोगिता ही नहीं रही। आखिर यह सब कुछ सुनियोजित विकास के नाम पर अनियमित विकास हो कर रह गया। आज बैंगलोर में लोग पानी के लिए तरश रहे हैं। कमोबेस यही हालात देश के अधिकांश हिस्सों में हो रहे हैं या होने की तैयारी में हैं। हालात साफ है धरती को पानी संजोने के लिए मिल ही नहीं रहा। कारण साफ है विकास और सुविधाओं के विस्तार के नाम पर उसके पड़ने वाले साइड इफेक्ट के बारे में तो समय पर सोचा ही नहीं गया। आज पीने के पानी से कई गुणा पानी तो हमें फ्लस के लिए चाहिए। कूलर के लिए चाहिए। किचन गार्डन के लिए चाहिए। यानी कि पानी पीने के लिए उपयोग में आने की तुलना में कई गुणा अधिक अन्य कार्यों में हो रहा है। आवश्यकता इस तरह के फ्लस सिस्टम या अन्य विकल्पों के खोज की है जिससे हालात में सुधार हो। हो क्या रहा है मोटा पैसा खर्च करके एसटीपी बनाये जा रहे हैं। पानी रिसाईकिल का ट्रिटमेंट कर दूसरे कामों में उपयोग करने की भी योजनांएं बनती है। पर कहीं ना कहीं शहरों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर पानी संग्रहण के स्रोत विकसित करने ही होंगे ताकि भूजल का स्तर बढ़ सके। इसके साथ ही भूजल के अत्यधिक दोहन को रोकना ही होगा और ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी जिससे पेयजल के अतिरिक्त अन्य कार्यों में पानी का सीमित उपयोग करते हुए बेहतर परिणाम प्राप्त कर सके।- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

बारिश हो रिमझिम रिमझिम तो बढ़े भूजल का स्तर
श्रावण का महीना और रिमझिम रिमझिम बरसात आज बीते जमाने की बात हो गई है। सही मायने में देखा जाए तो पिछले दो-तीन दशक की पीढ़ी तो रिमझिम बरसात या यों कहे कि सावण की झड़ी को तो देखना दूर की बात जानती भी नहीं होगी। एक समय था जब श्रावण में बरसात की झड़ी लग जाती थी और कई कई बार तो तीन-तीन, चार-चार दिन तक भगवान भास्कर के दर्शन मात्र को तरश जाते थे। इससे होता क्या था झरी लगती थी तो पानी सीधे जमीन में जाता था, जमीन की प्यास बुझती थी और जब प्यास बुझने लगती तो भूजल का स्तर बढ़ने लगता था। आज हालात दूसरे हैं। तेज बरसात आती हैं और बरसात का पानी भूमि की प्यास बुझाने के स्थान पर बह कर चला जाता है। कहने को तो वर्षा का ओसत तो पूरा दिखाई दे जाता हैं, सामान्य वर्षा के आंकड़ें भी पूरे हो जाते हैं पर बरसात का अधिकांश पानी बह कर निकल जाता है या फिर बाढ़ या शहरों की खराब ड्रेनेज व्यवस्था के कारण एकत्रित हो जाता है और फिर मक्खी-मच्छरों का स्थल बनकर बीमारी का प्रमुख कारण बन जाता है। क्योंकि अब तो रिमझिम बरसात का स्थान तेज वर्षा लेती जा रही है, एक दिन में ही रेकार्ड बरसात के समाचार आते हैं और इस कारण पानी भूजल स्तर को बढ़ाने की जगह बह जाता है।

दरअसल यह सब जलवायु परिवर्तन का कारण है तो दूसरी और अंधाधुंध पेड़ों की कटाई, वनों और गांवों को शहरों में तब्दील कर कंक्रिट का जंगल विकसित करने और इससे भी दो कदम आगे प्राकृतिक जल स्रोतों को नष्ट करना या उन्हें लगभग समाप्त कर कॉलोनियां विकसित कर देना रहा है। दरअसल हमारे वास्तुकारों ने शहरों को डिजाइन करते समय यह सोचा ही नहीं की पानी संग्रहण के लिए भी कोई जगहें विकसित हो। यह तो उनके दिमाग में ही नहीं रही। बाकी कसर शहरों में कच्ची जगह तो छोड़ने के प्रयास ही नहीं हुए यहां तक कि फुटपाथ तक पक्के कर दिए गए और सड़क किनारे लगे पेड़ों को भी चारों तरफ से पक्का कर दिया गया ताकि पानी भूमि में कहीं से जा ही नहीं सकें। अन्य कारणों के साथ यह भी एक बड़ा कारण है कि मौसम चक्र पूरी तरह से गड़बड़ाता जा रहा है। सर्दी में सर्दी नहीं, गर्मी में गर्मी नहीं और बरसात में बरसात के हालात नहीं दिखाई देने लगे हैं। हांलाकि आज मानसून के प्रेडिक्शन यानी की संभाव्यता तो लगभग सही सही बताई जाने लगी है पर प्रकृति ने जो अपना खेल दिखाया है वह अपने आप में गंभीर और चिंतनीय है। ऐसा नहीं है कि हालात जानते या समझते नहीं हो, और हालात पर चर्चा करने के लिए दुनिया के देशों के दिग्गज बैठते भी हैं और चर्चा भी करते हैं, कागजों में बड़ी बड़ी रिपोर्ट और रोडमैप भी बनते हैं पर परिणाम सामने हैं।

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एक पहलू यह भी है कि भूजल का अत्यधिक दोहन किया गया और यह आज भी बदस्तूर जारी है। कम पानी वाले फसल चक्र के बारें में समय पर सोचा ही नहीं गया। जमीन से पानी खिंचने के लिए पहले कुएं होते थे, उनसे उतना ही पानी निकलता था जितना रिचार्ज हो जाता था, पर कुओं का स्थान बोरिंग और बोर वेल ने ले लिया और धरती में समाये पानी को निचोड़ने में कोई कमी नहीं छोड़ी। ऐसा नहीं है कि समस्या की गंभीरता से अनविज्ञ रहे हो पर जो उपाय किये गये वह नाकाफी होने के साथ ही कारगर सिद्ध नहीं हुए। पिछले तीन-चार दशक से शहरों में वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम सरकार स्तर पर बनाने के साथ ही कोलोनाइजर्स को बनाने को कहा जाता रहा और आज भी कहा जा रहा है पर उसकी पोल इसी से पूरी हो जाती है कि कहने को तो वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम बना दिये, पैसे भी पूरे लग गए पर उनका स्ट्रक्चर जाने-अनजाने ऐसे बन गए कि यह तो वे ऊंचे बन गए, उन तक पानी पहुंचने की संभावनाएं न्यूनतम रह गई या फिर ऐसी जगह बना दिये गये जहां उनकी उपयोगिता ही नहीं रही। आखिर यह सब कुछ सुनियोजित विकास के नाम पर अनियमित विकास हो कर रह गया। आज बैंगलोर में लोग पानी के लिए तरश रहे हैं। कमोबेस यही हालात देश के अधिकांश हिस्सों में हो रहे हैं या होने की तैयारी में हैं। हालात साफ है धरती को पानी संजोने के लिए मिल ही नहीं रहा। कारण साफ है विकास और सुविधाओं के विस्तार के नाम पर उसके पड़ने वाले साइड इफेक्ट के बारे में तो समय पर सोचा ही नहीं गया। आज पीने के पानी से कई गुणा पानी तो हमें फ्लस के लिए चाहिए। कूलर के लिए चाहिए। किचन गार्डन के लिए चाहिए। यानी कि पानी पीने के लिए उपयोग में आने की तुलना में कई गुणा अधिक अन्य कार्यों में हो रहा है। आवश्यकता इस तरह के फ्लस सिस्टम या अन्य विकल्पों के खोज की है जिससे हालात में सुधार हो। हो क्या रहा है मोटा पैसा खर्च करके एसटीपी बनाये जा रहे हैं। पानी रिसाईकिल का ट्रिटमेंट कर दूसरे कामों में उपयोग करने की भी योजनांएं बनती है। पर कहीं ना कहीं शहरों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर पानी संग्रहण के स्रोत विकसित करने ही होंगे ताकि भूजल का स्तर बढ़ सके। इसके साथ ही भूजल के अत्यधिक दोहन को रोकना ही होगा और ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी जिससे पेयजल के अतिरिक्त अन्य कार्यों में पानी का सीमित उपयोग करते हुए बेहतर परिणाम प्राप्त कर सके।

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा