आर्थिक उदारवाद लागू करने और पूंजीवाद के साथ तालमेल बिठाने वाले बंगाली गोर्बाचोव, पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और कद्दावर मार्क्सवादी नेता बुद्धदेब भट्टाचार्य का 80 साल की उम्र में आठ अगस्त को बालीगंज स्थित उनके पाम एवेन्यू आवास पर निधन हो गया। उनका निधन राजनीति के साथ साहित्य एवं संस्कृति की अपूरणीय क्षति है। बंगाल के बौद्धिक चिंतकों, लेखकों, कवियों, नाट्यकर्मियों और सिने जगत के लोगों के बीच बुद्धदेब बेहद लोकप्रिय थे। उनकी पार्टी के कुछ कॉमरेड उन्हें मार्क्सवादी कम, बंगाली भद्र मानुष ज्यादा मानते थे। वे गहन मानवीय चेतना के चितेरे एवं सतरंगी रेखाओं की सादी तस्वीर थे। एक व्यावहारिक कम्युनिस्ट के रूप में उन्होंने उदारवाद और पूंजीवाद के बीच संतुलन बनाने का साहसिक कार्य करते हुए लोक-कल्याण की भावना को आकार दिया, जो उनके बड़े मानुष का बड़प्पन ही था। पश्चिम बंगाल में वंचित वर्गों के सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के उल्लेखनीय प्रयास उनके द्वारा किये गये। उनकी लोकप्रियता उनके दल से परे भी पसरी हुई थी, इसीलिए उनके निधन की सूचना से समूचे देश के राजनीतिक माहौल में शोक व्याप्त हो गया, जबकि वे पिछले 13 वर्ष से सक्रिय राजनीति से दूर थे। पर लोग इस आधुनिक कॉमरेड को भूले नहीं थे और न भूल पाएंगे। वे भारत के धर्मनिरपेक्ष और गणतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था की सुरक्षा के प्रति गहरे रूप से प्रतिबद्ध थे।
एक कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री के औद्योगिकीकरण और पूंजी को न्योतने के प्रयास आश्चर्यचकित कर देते थे। बुद्धदेब भट्टाचार्य की विरल विशेषता थी कि वे प्रारंभ में पूंजीपतियों के विरोधी थे, तो 1991 के बाद हुए सोवियत संघ के विघटन के बाद बाजारवाद एवं पूंजीवाद के समर्थक हो गये। पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु लगातार 24 वर्ष मुख्यमंत्री रहे थे। तभी बुद्धदेब भट्टाचार्य को उप-मुख्यमंत्री बनाकर सीपीएम उनकी ताजपोशी की तैयारी पहले से कर रही थी। तब स्वयं बुद्धदेब भी असमंजस में थे कि ज्योति बसु जैसे वटवृक्ष का उत्तराधिकार वह संभाल पाएंगे या नहीं? लेकिन जब मौका आया तो उन्होंने इस बड़ी जिम्मेदारी को बेखूबी निभाया। प्रदेश से बेरोजगारी खत्म करने के लिए पश्चिम बंगाल में उद्योगों को बढ़ावा देने की ठानी। उन्होंने गरीबांे के कल्याण के लिये, रोजगार वृद्धि एवं बंगाल के आर्थिक विकास के लिये औद्योगिक-क्रांति को बल दिया। बतौर मुख्यमंत्री, उन्होंने अपना पूरा ध्यान बेरोजगारी की समस्या दूर करने पर लगाया, जिसकी वजह से बड़ी तादाद में युवा पलायन के लिए मजबूर हो रहे थे। उन्होंने बंगाल में उद्योग और निवेश को लाने के लिए नारा दिया था, ‘डू इट नाउ, इसे अभी करो।’
बुद्धदेब भट्टाचार्य ने राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को बढ़ाया तथा सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों के आने के बाद इसमें अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के एक अहम हिस्से को शामिल करने के प्रावधान किये। उन्होंने राज्य की सुस्त नौकरशाही को दुरुस्त करने की कोशिश की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सही कहा कि वह एक राजनीतिक दिग्गज थे, जिन्होंने प्रतिबद्धता के साथ राज्य की सेवा की।’ बुद्धदेव ने मुख्यमंत्री बनने के बाद बंगाल के माहौल को बदलना शुरू किया। उनकी अपनी लोकप्रियता भी बढ़ी, उनके नेतृत्व में वामपंथियों ने साल 2001 और 2006 में विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत हासिल की। हर नेता का एक समय आता है, जब चीजें हाथ से निकलने लगती हैं। सिंगुर व नंदीग्राम आंदोलन के समय बुद्धदेब के साथ ही वामपंथी शासन की भी उल्टी गिनती तेज हो गई थी। उनके नेतृत्व की वाम मोर्चे की आखिरी सरकार द्वारा किये गये सही और गलत कामों को लेकर अलग-अलग मत आज तक बरकरार हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण तथा युवाओं के लिए राज्य के भीतर रोजगार के अच्छे अवसर उपलब्ध कराने का उनका अधूरा सपना अभी भी बेहद प्रासंगिक बना हुआ है।
लम्बी राजनीतिक पारी खेलते हुए बुद्धदेब भट्टाचार्य ने राजनीति जीवन में जिन गुणों का प्रदर्शन किया, वैसे गुण अब सत्ताधारियों में मुश्किल से मिलते हैं। सार्वजनिक जीवन में वे शुचिता एवं सादगी का पर्याय बनकर स्थापित हुए। सत्ता में रहते हुए और जीवन के अंतिम पलों तक एक सामान्य दो कमरे के अपार्टमेंट में उनका निवास रहा। बुद्धदेब सरकारी खर्चे के तामझाम से कोसों दूर रहे। अधिकांश मौकों पर वे धोती कुर्ता में ही नजर आते थे। वेतन का अधिकांश हिस्सा वे पार्टी कोष में जमा करा देते थे और पत्नी के वेतन से परिवार का खर्च चलाया करते थे। उनके जीवन की दास्तान को पढ़ते हुए जीवन के बारे में एक नई सोच पैदा होती है। जीवन सभी जीते हैं पर सार्थक जीवन जीने की कला बहुत कम व्यक्ति जान पाते हैं। बुद्धदेबजी के जीवन कथानक की प्रस्तुति को देखते हुए सुखद आश्चर्य होता है एवं प्रेरणा मिलती है कि किस तरह से दूषित राजनीतिक परिवेश एवं आधुनिक युग के संकुचित दृष्टिकोण वाले समाज में जमीन से जुड़कर आदर्श जीवन जिया जा सकता है, आदर्श स्थापित किया जा सकता है। और उन आदर्शों के माध्यम से देश की राजनीति, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैयक्तिक जीवन की अनेक सार्थक दिशाएँ उद्घाटित की जा सकती हैं।
अपने लंबे सार्वजनिक एवं राजनीतिक जीवन में वे हमेशा ईमानदारी और विनम्रता की प्रतिमूर्ति बने रहे। साल 1993 में उन्होंने कुछ गलतियों के विरोध में वाम मोर्चा सरकार से इस्तीफा दे दिया था। ज्योति बसु के मनाने पर कुछ महीने बाद वे फिर से मंत्री बने। उस दौरान उन्होंने एक बंगाली नाटक लिखा, जिसमें उन मूल्यों के पतन पर विचार किया गया है, जो वाम आंदोलन ने कभी अपनाया था। अपनी पीढ़ी के नेताओं में वे सबसे अधिक साहित्य, कला एवं संस्कृति के परिवेश से जुड़े हुए थे। सोवियत संघ के पतन के अनुभवों कारण ही वे अनेक मार्क्सवादी-लेनिनवादी धारणाओं पर सवाल उठाते थे। जितने सफल जननायक थे उतने ही प्रखर लेखक थे। उन्हें निर्भीक विचारों, स्वतंत्र लेखनी और बेबाक राजनैतिक टिप्पणियों के लिये जाना जाता रहा है। वे गरीबों, अभावग्रस्तों, पीड़ितों और मजलूमों की आवाज बनते रहे। भट्टाचार्य का जन्म 1 मार्च 1944 को उत्तरी कोलकाता में एक विद्वान पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। वह प्रसिद्ध बंगाली कवि सुकांत भट्टाचार्य के दूर के रिश्तेदार थे, जिन्होंने आधुनिक बंगाली कविता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्हें खुद एक सफल लेखक के रूप में जाना जाता है और वह विभिन्न परिस्थितियों में रवींद्रनाथ टैगोर को उद्धृत करने में माहिर थे। उन्होंने 1992 में बाबरी ध्वंस के समय ‘दुष्शामाई’ (बैड टाइम्स) नामक नाटक लिखा।
बुद्धदेव साहसी नेता थे। वे पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक तरह से देंग और गोर्बाचोव की तरह ही थे लेकिन उन्हें इन दोनों से अपनी तुलनाएं पसंद नहीं थीं। उन्होंने कृषि आय पर आश्रित पश्चिम बंगाल को अद्यौगिकीकरण की राह पर लाकर अपने राजनीतिक कैरियर का सबसे बड़ा जोखिम लिया था। उद्योग धंधों की स्थापना के लिए उन्होंने विदेशों से और देश के ही दूसरे राज्यों से पूंजी लाने के लिए मार्क्सवादी सिद्धांतों से समझौता भी किया। भारतीय राजनीति की बड़ी विडम्बना रही है कि आदर्श की बात सबकी जुबान पर है, पर मन में नहीं। उड़ने के लिए आकाश दिखाते हैं पर खड़े होने के लिए जमीन नहीं। दर्पण आज भी सच बोलता है पर सबने मुखौटे लगा रखे हैं। ऐसी निराशा, गिरावट व अनिश्चितता की स्थिति में बुद्धदेबजी ने राष्ट्रीय चरित्र, उन्नत जीवन शैली और स्वस्थ राजनीति प्रणाली के लिए बराबर प्रयास किया। वे व्यक्ति नहीं, नेता नहीं, बल्कि विचार एवं मिशन थे। उनको एक सुलझा हुआ और कद्दावर नेता, जनसेवक एवं सृजनकर्मी माना जाता रहा है। उनका निधन एक आदर्श एवं बेबाक सोच की राजनीति का अंत है। वे सिद्धांतों एवं आदर्शों पर जीने वाले व्यक्तियों की श्रृंखला के प्रतीक थे।
बुद्धदेव भट्टाचार्य की दिलचस्पी का दायरा राजनीति से इतर साहित्य, थिएटर, सिनेमा और संगीत तक फैला हुआ था। वे घंटों टैगोर की कविताओं को सुना सकते थे और पाब्लो नेरूदा की कविताओं का जिक्र कर सकते थे। बुद्धदेव भट्टाचार्य नामचीन बंगाली वामपंथी कवि सुकांतो भट्टाचार्य के भतीजे थे और मंत्री रहते हुए उन्होंने कुछ नाटक लिखे जिनका मंचन भी हुआ। बुद्धदेव का व्यक्तित्व एवं कृतित्व सफल राजनेता, प्रखर लेखक, सृजनकर्मी, कुशल प्रशासक के रूप में अनेक छवि, अनेक रंग, अनेक रूप में उभरकर सामने आता हैं। आपके जीवन की दिशाएं विविध एवं बहुआयामी थीं। आपके जीवन की धारा एक दिशा में प्रवाहित नहीं हुई, बल्कि जीवन की विविध दिशाओं का स्पर्श किया। वे बंगाल की राजनीति के आसमान में एक सितारे की तरह टिमटिमाते रहेंगे।
- ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार