जगत के पालनहार भगवान श्रीहरि विष्णु ने द्वापर युग में श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था। यह श्रीहरि का आठवां अवतार था। द्वापर युग भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से संपूर्ण रहा, तो वहीं भगवान ने धर्म की स्थापना के मार्ग में कई श्रापों का भी भोग किया। हालांकि असल में श्रीकृष्ण सांसारिक भावनाओं या श्राप से ऊपर हैं। लेकिन इसके बाद भी मनुष्य शरीर में बंधे होने की वजह से उन्होंने इन श्रापों को न सिर्फ अपने ऊपर लिया बल्कि उनको भोगा भी था। ऐसे में आज इस आर्टिकल के जरिए हम आपको बताने जा रहे हैं कि भगवान श्रीकृष्ण को कौन-कौन से श्राप मिले थे।
पहला श्राप
भगवान कृष्ण को पहला श्राप बाल्यकाल में मिला था। दरअसल, एक बार ऋषि दुर्वासा गोकुल के बाहर तपस्या में लीन थे। तभी श्रीकृष्ण ने अपनी बाल लीलाओं और शरारतों से ऋषि की साधना भंग कर दी। साधना भंग होने पर दुर्वासा ऋषि ने क्रोधित होते हुए श्रीकृष्ण को श्राप दे दिया कि जिस मां के प्यार के कारण वह इतना शरारती बने हैं। उन्हीं मां से श्रीकृष्ण को कई वर्षों तक दूर रहना होगा। दुर्वासा ऋषि द्वारा मिले इस श्राप को पूरा करने के लिए भगवान ने गोकुल का त्याग कर दिया था।
दूसरा श्राप
भगवान श्रीकृष्ण को दूसरा श्राप कौरवों की माता गांधारी ने दिया था। महाभारत ग्रंथ के मुताबिक जब माता गांधारी ने कौरव वंश की वधुओं के विलाप की आवाज सुनी, तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को श्राप देते हुए कहा कि वह चाहते तो इस अनर्थ को होने से रोक सकते थे। वह बिना युद्ध के भी धर्म की स्थापना कर सकते थे। यह कहकर गांधारी ने श्री कृष्ण को युदुवंश के विनाश का श्राप दिया था। वहीं श्रीकृष्ण ने गांधारी के इस श्राप को स्वीकार किया और स्वयं अपने कुल का विनाश होते देखा।
तीसरा श्राप
भगवान श्रीकृष्ण को तीसरा श्राप यमराज से मिला था। हालांकि इसको पूरी तरह से श्राप की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। लेकिन इसके बाद भी श्रीकृष्ण ने इस श्राप को स्वीकार किया था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण अपने गुरु संदीपनी मुनि के पुत्र को यमराज के पास से जीवित लेने गए थे। तब यमराज और श्रीकृष्ण का युद्ध हुआ और वह युद्ध हार गए। तब यमराज ने भूलवश श्रीकृष्ण को कहा कि वह श्रीकृष्ण के प्राण हरने से वह समय से पहले खुद आ जाएंगे और वैसा ही हुआ भी।